सोमवार, 1 अगस्त 2022

सम्प्रदायवाद ले डूबेगा जैन समाज को!

 महावीर सांगलीकर

jainway@gmail.com 


आजकल जैन समाज के लगभग हर व्यक्ति पर सम्प्रदायवाद हावी हो गया है. सभी सम्प्रदायों के अनुयायी एक दूसरे का द्वेष करते हैं. इतना ही नहीं, हर एक सम्प्रदाय में उपसम्प्रदाय पनप रहें हैं. उनके अनुयायीयों में भी बार-बार झगडे होते रहते हैं और नौबत हिंसा तक की या अदालत तक जाने की आ जाती है. 

यह एक कठिन समस्या है जिसका हल तुरंत निकालना चाहिए. वरना यह सम्प्रदायवाद और उपसम्प्रदायवाद जैन समाज और जैन धर्म दोनों को ले डूबेगा!

आगे लिखने से पहले मैं बता देना चाहता हूं कि मैं किसी सम्प्रदाय से संबधित नहीं हूं. मैं अपने आप को जैन कहलाना और कहलवाना पसंद करता हूं. मुझे पीड़ा तब होती है जब मैं देखता हूं कि जादातर जैनी अपने आपको जैन कहलवाने से जादा अपने अपने सम्प्रदाय के नाम से जाना जाना पसंद करते हैं. ‘जैन’ तो उनकी सेकण्ड या थर्ड आयडेंटिटी हो गयी है.

जब किसी दूसरे जैनी से परिचय होता है तब सबसे पहले वे उसके सम्प्रदाय का मन ही मन अनुमान लगाते है, या सीधा पूछते हैं, ‘आप दिगम्बर हैं या श्वेताम्बर?’

एक बार मैं ने अपने एक जैन दोस्त से कहा, ‘क्या तुम जानते हो कि महान अंतरिक्ष वैज्ञानिक डॉक्टर विक्रम साराभाई, जिन्हों ने ISRO की स्थापना की, जैन थे?’ तो उसने आश्चर्य से पूछा, ‘आं! क्या वह अपने XXम्बर थे?’ यह इस बात की निशानी है कि जैन समाज में सम्प्रदायवाद किस हद तक पहुंच गया है. यह लोग महान व्यक्तियों को भी नहीं बख्शते.

सम्प्रदायवाद का यह जहर इतना फैला हुआ है कि श्वेताम्बरों की धर्मशालाओं में दिगम्बरों को प्रवेश नहीं दिया जाता और दिगम्बरों की धर्मशालाओं में श्वेताम्बरों को प्रवेश नहीं दिया जाता.

मेरे एक जैन मित्र है डॉ. दिनेश ललवाणी. वह एक प्रसिद्ध डॉक्टर व मोटिव्हेटर हैं. अभी हाल ही की बात है, एक सेमीनार के सिलसिले में वह अहमदाबाद गए थे. जिस एरिया में सेमीनार था उस एरिया में एक दिगंबर जैन धर्मशाला थी. डॉक्टर साब को वहां रहने के लिए जगह नहीं मिली क्यों कि वह डॉक्टर दिगंबर नहीं थे. फिर उन्हें पता चला कि नजदिक ही एक श्वेताम्बर जैन धर्मशाला है. डॉक्टर साब वहां गए लेकिन उन्हें वहां भी प्रवेश नहीं मिला, क्यों कि डॉक्टर साब श्वेताम्बर नहीं थे. (अंदाजा मत लगाईये कि वह किस सम्प्रदाय से थे, मुद्दे की बात सोचिये!). आखिर डॉक्टरसाब को वैष्णवों की धर्मशाला में प्रवेश मिला!

वैसे तो डॉक्टर साब किसी फाइव्ह स्टार होटल में भी रुक सकते थे, लेकिन उन्हें यह एक सामाजिक अनुभव लेना था, जिसके बारे में उन्होंने पहले ही सुन रखा था!

जो बात धर्मशालाओं की, वही बात छात्रावासों की भी है. दिगम्बरो के छात्रावासों में श्वेताम्बर छात्रों को प्रवेश नहीं दिया जाता और श्वेताम्बरों के के छात्रावासों में दिगम्बर छात्रों को प्रवेश नहीं दिया जाता.

कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन अपवाद अपवाद ही होते हैं! 

तो जैन समाज में सम्प्रदायवाद का विष किसने बोया है? वह कौन लोग है जो सम्प्रदायवाद को बढावा दे रहें है? इस प्रश्न का उत्तर कड़वा है. सम्प्रदायवाद की जड जैन साधू, तथाकथित जैन विद्वान और जैन समाज के धनि नेता है.  जैन मुनियों और धनियों की सांठ-गांठ हैं. सब मुनि अपने-अपने सम्प्रदाय को बढाना चाहते है. जैन मुनियों को जैन धर्म से कुछ लेना देना नहीं हैं. उनके लिये तो उनका सम्प्रदाय ही जैन धर्म है. इसलिए हम उनसे यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वे सम्प्रदायवाद को मिटाने के लिए कुछ करें. यह नेक काम हम श्रावकों को ही करना होगा.

वास्तव में सम्प्रदायवाद कलहप्रियता का लक्षण है. कलहप्रियता एक मानसिक विकृति है. इसका सीधा मतलब यह है कि सम्प्रदायवादी लोग मनोरुग्ण हैं, इस बात को अच्छी तरह जान लेना चाहिए. 

आइये, आज से हम अपने आपको दिगंबर या श्वेताम्बर, स्थानकवासी या तेरापंथी कहलवाना बंद करें. हमें अपने आपको केवल ‘जैन’ इस संबोधन से ही पेश करना होगा. हमारे मन में सम्प्रदायवाद का जो भी जहर, कूडा और कचरा भरा हुआ है, उसे निकाल कर फेंकना होगा. जो साधू, विद्वान और नेता सम्प्रदायवाद को बढावा देते हैं, उनसे अपने आप को दूर रखना होगा. अगर हम यह नहीं करते, तो वह दिन दूर नहीं जब जैन समाज का अस्तित्व ही मिट जाएगा!



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