-चित्तरंजन चव्हाण
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सूचना: मेरा यह लेख अल्पबुद्धि और अंधभक्त लोगों के नहीं लिए है, बल्कि जिनमें कुछ अलग से सोचने की क्षमता और बदलाव लाने की इच्छा है, उनके लिये है .
आजकल के बहुत सारे जैन साधु जैन धर्म का प्रचार करने के बजाय हिन्दू धर्म का प्रचार करने लगे हैं, सम्प्रदायवाद को बढावा देने लगे हैं और जैन समाज में फूट डाल रहें है. कई साधु राजनितिक पार्टियों के एजेंट बन कर काम कर रहें हैं. जो खुद अपने रास्ते से भटक गए हैं, वह समाज का क्या मार्गदर्शन करेंगे?
दूसरी और जैन मंदिर जैन धर्म के प्रचार के दृष्टी से निरुपयोगी बन गए हैं, और यह मंदिर सबके लिए खुले नहीं होते.
चूं कि साधुओं का और जैन मंदिरों के ट्रस्टियों का मतपरिवर्तन करना एक असंभव बात है, हमें कुछ अलग सोचना चाहिये.
यहां मैंने साधुविरहित और मंदिरविरहित जैन समाज के निर्माण के बारे में मेरे विचार रखे हैं.
क्या बिना मंदिर और बिना साधुओं का जैन समाज हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें इन दो प्रश्नों पर गौर करना होगा:
क्या बिना साधुओं का जैन समाज होता है?
और
क्या बिना मंदिरों का जैन समाज होता है?
इन दोनों प्रश्नों के उत्तर 'हां, ऐसा समाज होता है' यह है ! इसके कुछ उदहारण मैं यहां दे रहा हूं.
बिना साधुओं का जैन समाज
जैन समाज के कुछ ऐसे संप्रदाय हैं, जिनमें साधुओं का आभाव है, या उस समाज में साधुओं को बिलकुल महत्त्व नहीं दिया जाता! भलेही उन समाजों में णमोकार मंत्र की मान्यता है और इस मंत्र का जाप करते समय 'णमो लोए सव्वसाहुणं' भी कहा जाता है.
ऐसे समाज हैं:
कानजी संप्रदाय के अनुयायी
श्रीमद राजचन्द्र के अनुयायी
दादा भगवान के अनुयायी
इनके अलावा तारणपंथी सम्प्रदाय के अनुयायी भी साधुओं पर ज्यादा निर्भर नहीं है.
इसका मतलब यह हो गया कि बिना साधुओं का भी जैन समाज होता है.
बिना मंदिरों का जैन समाज
अब रही बात बिना मंदिरों के जैन समाज की. ऐसे समाज भी अस्तित्व में हैं!
वह हैं:
स्थानकवासी संप्रदाय के अनुयायी
श्वेताम्बर तेरापंथी समाज के अनुयायी
इस प्रकार हम देखते है कि कुछ ऐसे जैन समाज अस्तित्व में हैं जिन्हें समाज है जिन्हें जैन धर्म का पालन करने के लिए मंदिर बनवाने की जरुरत नहीं, और कुछ ऐसे जैन समाज भी हैं, जिन्हें ज्ञान पाने के लिए साधुओं की जरुरत नहीं हैं !
तो क्या ऐसा जैन समाज बन सकता जिसमे ना मंदिर हैं और ना ही साधू?
जैन समाज में बडी संख्या में ऐसे लोग हैं जो ना मंदिर जाते हैं और ना ही साधुओं के पास जाते हैं. फिर भी उनमें से अधिक तर लोग अपने अपने विचारों के अनुसार जैन धर्म का व्यवस्थित पालन करते हैं. इन लोगों का कोई अलग संप्रदाय नहीं हैं, ऐसे लोग जैन समाज के हर संप्रदाय में देखे जाते हैं.
वास्तव में जैन धर्म का ज्ञान होने के लिए ना मंदिर जाने की जरुरत है, और ना ही साधुओं के सामने माथा टेकने की या उनसे प्रवचन सुनने की.
साधुविरहित और मंदिरविरहित जीवन आपको जैन धर्म का सच्चा ज्ञान पाने के लिए उपयोगी है, विशेष कर अगर आप बुद्धिजीवी हैं.
मंदिरों के बारे में यह सोचने की भी आवश्यकता है कि क्या भगवान महावीर के समय कोई जैन मंदिर था? इसका कोई पुरातत्वीय और प्राचीन साहित्यिक सबुत है?
जैन धर्म को विश्वव्यापी बनाने के लिए हमें साधुओं की नहीं बल्कि प्रचारकों की और मंदिरों की नहीं बल्कि ज्ञानकेंद्रों की जरुरत है.
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