शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर ने बौद्ध धर्म ही क्यों अपनाया?

 महावीर सांगलीकर  

डॉक्टर बाबासाहब आंबेडकर ने अपने जीवन के अंतिम काल में बौद्ध धर्म अपनाया. वह 1956 की विजयादशमी का दिन था. उस दिन डॉ बाबासाहेब आंबेडकर और उनकी पत्नि के साथ साथ डॉ. बाबासाहब के 5 लाख अनुयायियों ने भी बौद्ध धर्म अपनाया.   

वास्तव में डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़ने की घोषणा सन 1935 में की थी, लेकिन उस समय उन्होंने हिंदू धर्म छोडकर वह कौन सा धर्म अपनायेंगे इस बारे में कुछ नहीं कहा था. इस घोषणा के पहले ही सन 1929 में अपने अनुयायों को सलाह दी थी कि ‘आपको जो धर्म सम्मान देगा ऐसे किसी भी धर्म को अपनाना चाहिए. उनकी इस सलाह से पता चलता है कि उस समय वह बौद्ध धर्म का आग्रह नहीं रखते थे. उनका आग्रह इतना ही था की दलितों को हिंदू धर्म छोड़ देना चाहिए. 1935 में घोषणा के समय उन्होंने कहा था कि ‘मैं हिंदू के रूप में पैदा ज़रूर हुआ हूं लेकिन हिंदू के रूप में मरुंगा नहीं’.

अब सवाल यह है कि जब बाबासाहब हिंदू धर्म छोड़ना चाहते थे और किसी भी अन्य धर्म को अपनाना चाहते थे, तो बाद में उन्होंने बौद्ध धर्म ही क्यों अपनाया? और बौद्ध धर्म अपनाने के लिए उन्होंने अपनी घोषणा के बाद 21 साल का समय क्यों लिया? और इस 21 साल में इस संदर्भ में कौनसी घटनाएं घटी जिन्होंने उन्हें बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित किया?

क्या उनके बौद्ध धर्म को अपनाने के पीछे बौद्ध धर्म मानवतावादी है, उसमें जातिवाद नहीं है, अस्पृश्यता नहीं है आदि कारण हैं, जो कि उनके अनुयायियों द्वारा बताये जाते हैं? इस लेख में मैंने कुछ ऐसी घटनाओं पर प्रकाश डाला है, जिनके बारे में ज्यादातर लोग जानते नहीं हैं.

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर सिख धर्म अपनाना चाहते थे!
बौद्ध धर्म अपनाने से पहले डॉ. आंबेडकर ने सिख धर्म के बारे में गंभीरता से सोचा था. 1936 में अमृतसर में शीख मिशन परिषद में डॉ. आंबेडकर ने कहा था ‘एक हिंदू के रूप में यह मेरा आखरी भाषण है’. इस परिषद में केरल से आये हुए थिय्या इस दलित जाती के 5 लोगों ने उनके नेता डॉ. कुट्टीर के साथ सिख धर्म अपनाया. इसी परिषद में उत्तर प्रदेश से आये हुए 50 लोगों ने भी सिख धर्म अपनाया.

सिख मिशन परिषद के बाद अपनी डॉ. बाबासाहब ने अपने बेटे और भतीजे इन दोनों को हरमिंदर साहिब भेजा था. यह दोनों हरमिंदर साहिब में डेढ़ महीने से ज्यादा समय के लिए रुके थे.

जून 1936 में डॉ. बाबासाहब ने सिख धर्म अपनाने का निर्णय लिया. उन्होंने सिख मिशन से अपना संपर्क बढा दिया. दलितों से सिख धर्म अपनाने वाले छात्रों के लिए मुंबई में एक छात्रावास शुरू करने पर भी विचार किया गया.

इसके बाद डॉ बाबासाहब ने अपने 13 अनुयायियों को सिख धर्म का अध्ययन करने के लिए अमृतसर भेज दिया. विशेष बात यह है कि इन 13 अनुयायियों ने सिख धर्म से प्रभावित होकर यह धर्म अपनाया.

इसी समय पटियाला के महाराज भूपिंदर सिंह ने अपनी बहन की शादी डॉ. बाबासाहब के परिवार के किसी योग्य युवक के साथ करने का प्रस्ताव रखा. इसके पीछे महाराज भूपिंदर सिंह का उद्देश्य यह था कि दलितों के मन का न्यून गंड दूर किया जाय.

लेकिन….

लेकिन आगे चलकर सिख धर्म अपनाने के प्रयासों को तब झटका लगा, जब उस समय के अकाली दल में दलितों के सिख धर्म में प्रवेश पर गंभीरता से विचार किया गया. अकाली दल ने दलितों के सामूहिक धर्मपरिवर्तन का विरोध किया. इसके पीछे वास्तव कारण क्या था उसका पता नहीं चलता है. लेकिन अकाली दल के विरोध के कारण डॉ. बाबासाहेब के दलितों को सिख बनाने के सारे प्रयास व्यर्थ हो गए.

बाबासाहब ने जैन धर्म का भी विचार किया था!
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने जैन धर्म का भी विचार किया था. लेकिन वह जैन धर्म के बारे में उतने गंभीर नहीं थे जितने कि वह सिख धर्म के बारे में थे.

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने इस संदर्भ में उस समय के प्रसिद्ध जैन आचार्य शांतिसागर जी से पत्रव्यवहार किया था, लेकिन आचार्य शांतिसागर जी ने इस प्रकार के सामूहिक धर्मपरिवर्तन के लिए मन कर दिया.

लेकिन उसी काल में दूसरे कई जैन साधू दलितों में जैन धर्म का प्रचार कर रहें थे. उनके प्रयासों से मध्य प्रदेश राजस्थान आदि प्रदेशों में हजारों दलितों ने जैन धर्म अपनाया था. महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के कई दलित परिवारों ने भी जैन धर्म अपनाया था. शायद यह सारी जानकारी डॉ. बाबासाहब तक नहीं पहुंची थी.

5 दिसंबर 1956 की रात 8 बजे डॉ. बाबासाहब को मिलने के लिए एक जैन प्रतिनिधि मंडल आया था. इस प्रतिनिधी मंडल के साथ डॉ. बाबासाहब ने जैन और बौद्ध धर्म के बारे में चर्चा की. यह प्रतिनिधि मंडल अगले दिन होनेवाले एक कार्यक्रम का आमंत्रण देने के लिए आया था. डॉ. बाबासाहब ने इस आमंत्रण का स्वीकार किया.

सारे घटना क्रमों को देखकर ऐसा लगता है कि डॉ. बाबासाहब सिख धर्म अपनाना चाहते थे और उसके लिए उन्होंने ढेर सारे प्रयत्न भी किये थे. लेकिन अकाली दाल के विरोध के कारण उन्हें सिख धर्म का विचार छोडना पडा. जैन धर्म के बारे में वह गंभीर नहीं थे और ना ही जैन साधुओं ने और जैन समाज ने डॉ. बाबासाहब से इस बारे में संपर्क किया. फिर जैन आचार्य शांतिसागर जी ने इस प्रकार के सामूहिक धर्मांतर का विरोध किया.

इस प्रकार सिख और जैन धर्म का विचार उन्हें छोड़ना पड़ा. फिर वह ईसाई या मुस्लिम बिलकुल नहीं बनना चाहते थे. ऐसी अवस्था में उनके पास केवल एकही रास्ता बचा था, और वह था बौद्ध धर्म! यह रास्ता उनके लिए आसान था, क्यों कि उस समय भारत में लदाख और पूर्वोत्तर राज्यों को छोडकर अन्य प्रदेशों में बौद्ध धर्म के अनुयायी नहीं थे, ना ही प्रस्थापित बौद्ध समाज था और ना ही कोई बौद्ध साधू. इसलिए बौद्ध धर्म अपनाने से उन्हें कोई रोक नहीं सकता था.

बौद्ध धर्म अपनाने के लिए उन्होंने अपनी घोषणा के बाद 21 साल का समय क्यों लिया? इसका एक कारण यह हो सकता है कि वह हिंदू रहकर ही दलितों का उद्धार करना चाहते थे. शायद उन्हें लगता था कि दलितों पर होने वाले अत्याचार धीरे धीरे कम हो जायेँगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ, इसलिए उन्हें धर्मपरिवर्तन करना पडा.

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