शनिवार, 11 सितंबर 2021

जाट समाज और जैन धर्म

 महावीर सांगलीकर


जाट समाज के प्राचीन इतिहास के बारे में कई इतिहासकार बहुत कुछ लिख चुके है. उनके अनुसार जाट समाज का मूल ज्ञातृ वंश में है. यह ज्ञातृ वंश वही वंश है जिसमें भगवान महावीर ने जन्म लिया था. यह इतिहासकार कहते है कि भगवान महावीर के समय और बाद में जाटों ने जैन धर्म अपनाया था. उल्लेखनीय बात यह है कि भगवान महावीर का जन्म बिहार के जिस वैशाली जिले में हुआ था वहां आज भी ......

जाट समाज 

जाट समाज भारत का एक प्रमुख और प्रभावशाली समाज है, जो मुख्य रूप से हरियाणा (29%), पंजाब (25%), पश्चिम उत्तर प्रदेश (17%), राजस्थान (15%), दिल्ली (10%) आदि प्रदेशों में निवास करता है. (प्रदेशों के आगे दिए गये आंकडे उस प्रदेश की कुल आबादी में जाटों का प्रतिशत दिखाते हैं.)

जाटों का मूल सिंधु सभ्यता से जुडा हुआ है. बाद में यह समाज पूर्व दिशा में (यानि आज के पश्चिम भारत की ओर) स्थलांतरित हो गया.

मूल रूप से यह समाज एक पशुपालक समाज था, फिर वह ज्यादातर किसान बन गया. आज यह समाज जीवन के हर क्षेत्र में आगे है, चाहे वह राजनीति हो, धर्म हो, सेना और पुलिस हो, उद्योग-व्यवसाय हो, खेलकूद हो या फिल्म इंडस्ट्री आदि हो.

यह एक वॉरिअर (लडाकू) समाज है. जाटों के बारे मेँ कहा जाता है कि ‘शांति के समय इनके हातों में हल और युद्ध के समय तलवारें होती हैं’. जाटों ने 17 वी और 18 वी सदी में मुगलों के खिलाफ युद्ध किया. सिख धर्म के लडाकू खालसा पंथ के विकास में भी जाटों का बड़ा योगदान है. अंग्रेजों के खिलाफ कई जाट क्रांतिकारकों ने काम किया और यहां तक कि बलिदान भी दिया. उनमें सबसे प्रसिद्ध नाम है शहीद भगतसिंग का, जो एक जाट-सिख परिवार में पैदा हुए थे.

आज भारतीय सेना में बड़ी संख्या में जाट सैनिक व सेनाधिकारी दिखाई देते हैं. भारतीय सेना में जाट रेजिमेंट प्रसिद्ध है. जाट सैनिक जाट रेजिमेंट के अलावा सिख रेजिमेंट, राजपुताना रायफल्स और ग्रेनेडियर्स में भरती होते हैं.

जाट समाज की विशेषता यह है कि इस समाज में हिन्दू, सिख, मुस्लिम, जैन, आर्य समाजी आदि सभी धर्मो के अनुयायी पाए जाते हैं. ज्यादातर जाट हिन्दू या सिख हैं. मुस्लिम जाट ज्यादातर पाकिस्तान में होते हैं.

जाटों में जैन धर्म

इस लेख में मै जैन धर्मानुयायी जाटों की जानकारी दे रहां हूं. लेकिन उससे पहले मै जाट समाज की तीन विशेषताएं बताना चाहूंगा. पहली विशेषता यह है कि यह समाज मूल रूप से शाकाहारी है. दूसरी विशेषता यह है कि जातिव्यवस्था के मामले में इनके नियम शिथिल है. तीसरी विशेषता यह है कि वैदिक परंपरा की वर्णव्यवस्था को यह समाज महत्त्व नहीं देता. यह तीनों विशेषताएं इस बात की ओर इशारा करती है कि किसी जमाने में इस समाज पर जैन विचारों का बड़ा प्रभाव रहा होगा.

जाट समाज के प्राचीन इतिहास के बारे में कई इतिहासकार बहुत कुछ लिख चुके है. उनके अनुसार जाट समाज का मूल ज्ञातृ वंश में है. यह ज्ञातृ वंश वही वंश है जिसमें भगवान महावीर ने जन्म लिया था. यह इतिहासकार कहते है कि भगवान महावीर के समय और बाद में जाटों ने जैन धर्म अपनाया था. उल्लेखनीय बात यह है कि भगवान महावीर का जन्म बिहार के जिस वैशाली जिले में हुआ था वहां आज भी ज्ञातृ वंश के वंशज निवास करते हैं, जिन्हे जथरिया नाम से जाना जाता है, और उनमें प्राचीन जैन रीतिरिवाजों का पालन किया जाता हैं.

बौद्ध ग्रंथों में ज्ञातृ को नात और भगवान महावीर को नातपुत्त कहा गया है. वास्तव में ज्ञातृ शब्द नात इस प्राकृत शब्द का संस्कृत रूप है.

ज्ञातृ, नात, जथरिया और जाट, इन चारों शब्दों के उच्चारण में कुछ समानता दिखाई देती हैं.

मध्य काल के इतिहास में जाटों के जैन होने की विशेष जानकारी नहीं मिलती, क्यों कि इस विषय में ज्यादा शोध कार्य नहीं हुआ है. लेकिन प्राचीन और मध्यकाल में जाट बहुल प्रदेशों में जैन धर्म के अस्तित्व के कई सबूत मिलते हैं.

आधुनिक काल में जाट समाज में जैन धर्म के अनुयायी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं. इन्हें जैन जाट या जाट जैन कहा जाता है. इनमें से कुछ लोग अपना सरनेम जैन लिखते हैं, लेकिन ज्यादातर लोग अपना गोत्र आदि लिखते हैं, जैसे कि चहल, चौधरी, दहिया आदि. जैन जाटों और हिन्दू जाटों में विवाह होना एक आम बात है.

इस समाज से बड़ी संख्या में जैन साधू और साध्वियां भी हुई हैं. मै यहां कुछ प्रसिद्ध साधुओं की जानकारी दे रहां हूं, जिनका जन्म जाट परिवार में हुआ था.


जैन जाट समाज के बारे में टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में प्रकाशित लेख ..... 


मुनि मायाराम और उनकी परंपरा

हरियाणा के जींद जिले में बडौदा नामक एक गांव है. यह गांव एक जाट बहुल गांव है. इस गांव की विशेषता यह है की इस गांव के लगभग सभी लोग जैन धर्म के अनुयायी हैं. इस गांव के चहल परिवार के एक युवक मायाराम ने वहां सन 1854 में जैन मुनि दीक्षा ली और वह मुनि मायाराम नाम से प्रसिद्ध हो गए. वह जैन धर्म के स्थानकवासी सम्प्रदाय से सम्बंधित थे. मुनि मायाराम जी ने हरयाणा, पंजाब, दिल्ली आदि प्रदेशों में जैन धर्म का प्रचार किया. आगे चलकर उनकी परंपरा से इतने लोग जुड़ गए कि केवल बडौदा गांव से ही पिछले 170  वर्षों में 65 से ज्यादा जैन साधू या साध्वियां बनी हैं. इन साधुओं और साध्वियों के कार्य और प्रभाव के कारण लाखों लोग शाकाहारी और व्यसनमुक्त बन गये और जैन धर्म का पालन करने लगे. इस परंपरा के साधुओं और साध्वियों का प्रभाव केवल जाट समाज पर ही नहीं बल्कि अन्य लोगों पर भी पड़ा.

मुनि मायाराम जी के नाम से दिल्ली में एक अस्पताल है और एक पब्लिक स्कूल भी है. उसी प्रकार अन्य कई स्थानों पर उनके नाम से संस्थाएं हैं. बडौदा गांव में भी मुनि मायाराम जी के नाम पर एक बड़ा अस्पताल बनाने जा रहा है, जिसका लाभ बडोदा के साथ साथ आसपास के गांवो के लोगों को भी होगा. इस अस्पताल की विशेषता यह है कि इसके लिए गाँव के लोगों ने दो एकड़ जमीन दान कर दी, और अस्पताल का निर्माण भी गांव के लोगों के चंदे और सहयोग से हो रहा है. बडौदा के पास एक रेलवे स्टेशन भी बनने जा रहा है, जिसका नाम भी मुनि मायाराम जी के नाम पर रखा जाएगा. इस रेलवे स्टेशन का लाभ बडौदा के साथ साथ आस पास के अन्य गांवो के लोगों को भी हो जाएगा.

मुनि बुद्धिविजय जी

जाट परिवार में जन्म लेने वाले दूसरे प्रसिद्ध जैन मुनि थे मुनि बुद्धिविजय जी. इनका जन्म पंजाब के पठानकोट जिले में बहलोलपूर के पास दलुआ गांव में एक जाट सिख परिवार मेँ सन 1806 मेँ हुआ. इनके पिताजी गांव के मुखिया थे. मुनि बुद्धिविजय जी का बचपन का नाम तलसिंग था, जो एक हिन्दू साधू के कहने पर रखा गया था. उस साधू ने बताया कि यह बच्चा आगे चलकर एक संन्यासी बनेगा.

तलसिंग को लोग दलसिंग इस नाम से पुकारते थे. बाद में यह परिवार दूसरे एक गांव में जाकर बसा, जहां तलसिंग का नाम बुटासिंग हो गया. उस गांव में बसने के बाद बुटासिंग ने गुरुमुखी और गुरु ग्रंथ साहिब की पढाई की. दूसरे सिख ग्रन्थ भी पढ़े. इससे उसके मन में सांसारिक चीजों के से अरुचि तैयार हो गयी. उसने अपनी मां को बताया की वह शादी नहीं करेगा, बल्कि एक साधू बनेगा.

अपनी माता की आज्ञा से वह सच्चे गुरु की खोज मेँ निकला और पूरा पंजाब घूमा. फिर कश्मीर गया और उसके बाद हिमालय. कई फकीरों से साधुओं से मिला. लेकिन उसने पाया कि उनमें से ज्यादातर लोगों की धन, संपत्ति, सत्ता और स्त्रियों के प्रति आसक्ति थी. इस कारण बुटासिंग की सच्चे गुरु की तलाश अधूरी रह गयी.

लेकिन एक दिन बुटासिंग की मुलाकात मुनि नागरमल से हो गयी. मुनि नागरमल एक महान जैन मुनि थे जो अपने ज्ञान और शुद्ध आचरण के लिये प्रसिद्ध थे. मुनि जी से मिलने के बाद बुटासिंग उनका शिष्य बन गया और सन 1831 में दिल्ली में मुनि दीक्षा ली. दीक्षा के बाद उनका नाम मुनि बुद्धिविजय हो गया.

मुनि बुद्धिविजय जी का विशेष कार्य यह है कि उन्होंने पंजाब प्रांत में जैन धर्म के मूर्तिपूजक सम्प्रदाय पुनरुज्जीवित किया.

यह भी पढिये:

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें