© महावीर सांगलीकर
प्राचीन जैन साहित्य में मातंग वंश, मातंग व्यक्ति के कई उल्लेख दिखाई देते हैं. इस लेख में मातंग वंश के प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डाला गया है.
मातंग भारत का एक प्रमुख समाज है. इस समाज के लोग मुख्य रूप से महाराष्ट्र, तेलंगना, कर्नाटक आदि प्रदेशों के रहिवासी हैं. इन प्रदेशों के अलावा गुजरात, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश आदि इलाखों मेँ भी यह समाज दिखाई देता है. तेलंगना, आंध्र आदि प्रदेशों में इन्हें मादिगा नाम से जाना जाता है.
मातंग शब्द का एक अर्थ ‘हाथी’ होता है. मातंग नाम के एक ऋषि भी थे. भारतीय संस्कृति में मातंग यह शब्द मंगल सूचक है. महाराष्ट्र के गांवों में आज भी मातंग व्यक्ति का दिखाई देना एक शुभ शकुन माना जाता है.
मातंग लोगों का पारंपारिक काम गांव की रक्षा करना, रस्सी और झाड़ू बनाना, वादन, दाई काम आदि थे. किसी के घर के शुभ कार्य की शुरुआत के समय मातंग को बुलाया जाता था. आज भी गांवों में विवाह कार्य की शुरुआत में मातंग व्यक्ति के हातों से दरवाजे पर तोरण बांधा जाता है.
यह समाज प्राचीन जैन ग्रंथों में वर्णित मातंग वंश का वंशज है.
मातंग वंश का इतिहास गौरवशाली और प्राचीन है, लेकिन इसपर ज्यादा शोध कार्य नहीं हुआ है. जो कुछ शोधकार्य हो गया है है वह बौद्ध और वैदिक परंपरा के साहित्य पर आधारित है. इस लेख में मैं प्राचीन जैन साहित्य के आधार पर मातंगों के इतिहास पर प्रकाश डालूंगा और वर्तमान में मातंग समाज की स्थिति के बारे में कुछ बातें लिखूंगा.
वास्तव में आज के मातंग समाज का मूल प्राचीन भारत के मातंग वंश में है. विशेष बात यह है कि प्राचीन काल के जितने भी पौराणिक वंश हैं, उनमें से आज केवल दो ही समाज उसी नाम से जाने जाते है. वह हैं मातंग और यादव!
प्राचीन जैन साहित्य में मातंग वंश और मातंग व्यक्तियों के उल्लेख कई ग्रंथों में आये हुए हैं. इन उल्लेखों एक महत्त्वपूर्ण उल्लेख मातंग वंश की उत्पत्ति के बारे में है. उसके अनुसार इस वंश की शुरुआत जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के घर से ही हुई!
भगवान ऋषभदेव के एक पोते का नाम विनमि था. इस विनमि के एक पुत्र का नाम मातंग था. इसी मातंग से मातंग वंश की शुरुआत हुई. आगे चलकर इस मातंग वंश की सात शाखाएं बन गयी. उनमें से एक शाखा थी वार्क्ष मुलिक वंश. इस वंश का चिन्ह था नाग. इसी वंश को आगे नागवंश नाम से जाना जाने लगा. इस वंश में आगे चलकर जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ हुए, जिनका चिन्ह नाग है.
इस संदर्भ में और एक विशेष बात यह है कि तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का यक्ष मातंग है. और एक विशेष बात यह है की जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का यक्ष भी मातंग है.
जैन परंपरा में मुनियों का बड़ा महत्त्व है. प्राचीन जैन साहित्य में कई जैन मुनियों के उल्लेख उनके वंश या जाती के साथ किये गए हैं. उसका अध्ययन करने के बाद पता चलता है कि जैन मुनि परंपरा के इतिहास में मातंग समाज से भी कई मुनि और यहां तक कि आचार्य भी हुए है. (आचार्य का मतलब है जैन मुनि संघ के प्रमुख). हरीकेशी, चित्त, संभूत, मेतार्य आदि कई जैन मुनि जन्म से मातंग थे.
इनके अलावा जैन साहित्य में कई जगह केवल ‘मातंग मुनि’ इस नाम से भी वर्णन आये हैं.
जैन साहित्य मातंगों को विद्याधर भी कहा है. विद्याधर का अर्थ है जिनके पास अनेक प्रकार की विद्याएं होती है. भगवान महावीर के समय मातंगपति नामक एक व्यक्ति मातंगों का प्रमुख था. उसके पास अदृश्य होने की कला थी. इस मातंगपति की एक रंजक और बोधप्रद कथा जैन साहित्य में प्रसिद्ध है.
दूसरी सदी के महान जैन आचार्य समंतभद्र ने अपने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कि ‘सम्यग्दर्शन संपन्न मातंग देवतुल्य होता है’.
जैन धर्म के विश्व प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में 14 वी सदी में मंगाई नाम की एक श्राविका थी, जो राजनर्तिकाओं की प्रमुख थी. वह उस समय के प्रसिद्द जैन धर्मगुरु चारुकीर्ति पण्डिताचार्य की शिष्या थी. उसने श्रवण बेलगोला में एक जैन मंदिर का निर्माण किया था. यह मंदिर ‘मंगाई बसदि’ नाम से प्रसिद्ध है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें