महावीर सांगलीकर
jainway@gmail.com
मैंने बचपन से दिगंबर जैन समाज को काफी करीब से देखा है. उसी प्रकार श्वेताम्बर और स्थानकवासी समाज को भी करीब से देखा है. इस कारण मैं इन तीनों समाज के लोगों की मानसिकता को भली भांति जानता हूं.
श्वेताम्बर और स्थानकवासी समाज में जैन समाज के सभी लोगों के लिए, चाहे वह दिगंबर क्यों न हो, एक साधर्मी वात्सल्य की भावना है. दिगंबर समाज में ऐसी भावना का अभाव है. ज्यादातर दिगंबर जैन लोग श्वेताम्बर समाज का द्वेष करते है, स्थानकवासी समाज का भी द्वेष करते हैं, इतना ही नहीं, दिगंबर समाज के ही अन्य उपसम्प्रदायों और जातियों के लोगों का भी द्वेष करते हैं.
पिछले सौ सालों में श्वेताम्बर और स्थानकवासी समाज ने जीवन के हर क्षेत्र में बडी प्रगति की है. चाहे वह व्यवसाय हो, उद्योग जगत हो, शिक्षा हो, सामाजिक या शैक्षणिक कार्य हो, राजनीति हो, धार्मिक क्षेत्र हो या अन्य कोई क्षेत्र हो. इसके उल्टे, दिगंबर जैन समाज तुलनात्मक रूप से श्वेताम्बर और स्थानकवासी समाज से पीछे ही रह गया.
श्वेताम्बरों के तीर्थ क्षेत्र और दिगंबरों के तीर्थक्षेत्रों की जब आप तुलना करोगे, तब भी आपको बडा फर्क नजर आएगा. तीर्थक्षेत्रों का रखरखाव, व्यवस्थापन, वहां रहने की सुविधा, वहां के भोजनालयों मिलनेवाला भोजन आदि सभी मामलों में श्वेताम्बर समाज दिगंबर जैन समाज से काफी आगे है.
यही बात छात्रालयों और गुरुकुलों के मामलों में भी दिखाई देती है.
दिगंबर समाज के लोगों की एक और विशेषता यह है की इन्हें जैन इस शब्द से ज्यादा दिगंबर इस शब्द से लगाव है.
दक्षिण भारत के जैन समाज की स्थिति कुछ ज्यादा ही गंभीर है. कर्णाटक सरकार की एक रिपोर्ट की अनुसार इस प्रदेश के दिगंबर जैन समाज में गरीबी काफी ज्यादा है, और इस समाज के कई लोग निरक्षर है. साक्षर लोगों में ग्रॅज्युएट्स की संख्या काफी कम है. यही हालत तमिल नाडु के दिगंबर जैन समाज की भी है. वास्तव में भारत का जैन समाज एक अमीर और सुशिक्षित समाज के रूप में जाना जाता है. लेकिन दक्षिण भारत का जैन समाज इस व्याख्या में नहीं बैठता.
दक्षिण भारत के जैन समाज में धर्म के ज्ञान में भी कमी दिखती है. लेकिन साम्प्रदायिक कट्टरता बहोत ज्यादा है. यह कट्टरता अपने आपको दिगंबर कहलाने तक ही मर्यादित है. उत्तर के दिगंबर जैन लोगों में भी सांप्रदायिक कट्टरता ज्यादा है, लेकिन उन लोगों को धर्म थोडा बहुत ज्ञान भी तो होता है.
खैर, दिगंबर जैन समाज के नेता और मुनि, और साथ में श्रावक भी, चाहे वह दक्षिण के हो या उत्तर के, इनमें साम्प्रदायिक कट्टरता कूट-कूट कर भरी होती है. विशाल दृष्टिकोण का अभाव होता है. यह लोग अजैन लोगों से तो टूटू ही गए हैं, साथ ही जैन समाज के अन्य सम्प्रदायों से भी टूट गए हैं. इतना ही नहीं, यह लोग दिगंबर समाज के अन्य जातियों से भी टूटे हुए होते है.
इनकी कट्टरतावाद और दकियानूसी विचारों का एक प्रातिनिधिक उदाहरण देना चाहूंगा. मेरा एक ब्राम्हण दोस्त है. उसने जैन धर्म में पीएचडी की है. शुद्ध शाकाहारी है और जैन धर्म का ज्ञान औसत जैनियों से काफी ज्यादा रखता है. एक बार अपने परिवार के साथ एक दिगंबर जैन मंदिर गया. वहां के एक आदमी ने इस अनजान परिवार को देख कर मेरे दोस्त से उसकी जाति पूछी. उसने अपनी जाति ब्राम्हण बतायी तब उसे मंदिर में जाने से मना कर दिया गया, क्यों कि उस मंदिर में अजैनियों प्रवेश नहीं दिया जाता. बात सिर्फ उस मंदिर की या मेरे उस दोस्त की नहीं है, इस प्रकार की घटनाएं एक आम बात है.
एक और विचित्र बात का उल्लेख करना चाहूंगा. मैं हमारे शहर के 4 कट्टरतावादी दिगंबर जैनियों को जानता हूं, जो बेचारे (?) अकेले रहते हैं, खाना खाने के लिए श्वेताम्बरों के भोजनालय में जाते हैं, लेकिन श्वेताम्बरों को हमेशा कोसते रहते हैं. यह तो जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करने की आदत है!
ऐसा ही एक कट्टरतावादी दिगंबर जैनी भामाशाह को दिगंबर जैनी जैन संप्रदाय का अनुयायी मानता था. मैंने उससे कहा की अरे भाई, भामाशाह तो दिगंबर जैनी नहीं थे. वह कट्टरतावादी इस बात को मानने को ही तैयार नहीं था. फिर मैंने उसे कुछ लिखित सबूत दिखाये. फिर भी वह मानने को तैयार नहीं हुआ (क्यों कि कट्टरतावादी अपना झूठ स्वीकार नहीं करते). लेकिन आजकल वह पहले जैसे भामाशाह का गुणगान नहीं करता!
दिगंबर जैन समाज को इन मुद्दों पर आत्मपरीक्षण करना चाहिये:
● मध्ययुग और उसके पहले जैन समाज पर जो संकट आये, जैनियों पर जो अत्याचार हुये वह केवल दक्षिण भारत में ही क्यों हुए? उस समय दक्षिण में केवल दिगंबर जैन समाज ही था, तब वहां न श्वेताम्बर थे और न श्वेताम्बर मतलब जो कुछ हुआ वह शैवों और दिगंबरों, वैष्णवों और दिगंबरों के बीच हुआ. दिगंबरों ने ऐसा क्या किया था जिसके कारण शैव और वैष्णव उनके खिलाफ गए?
● उत्तर भारत में पंडित टोडरमल को एक राजा ने देहदंड दिया. यह पंडित टोडरमल दिगंबर ही थे. इससे क्या निष्कर्ष निकलता है?
● दक्षिण भारत में जो हुआ वैसा उत्तर भारत में क्यों नहीं हुआ? (पंडित टोडरमल का अपवाद छोडकर).
● दिगंबरों की कई जातियों ने (विशेषकर दक्षिण भारत की) जैन धर्म छोडकर शैव, लिंगायत या वैष्णव धर्म क्यों अपनाया? अगर इनमें से कोई जाति या कुछ लोग वापस जैन धर्म अपनाना चाहते हैं तो क्या दिगंबर जैन समाज उन्हें अपना लेगा?
● दक्षिण भारत का दिगंबर जैन समाज आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछडा हुआ क्यों हैं?
● दिगंबर जैन समाज में (चाहे वह दक्षिण भारत का हो या उत्तर भारत का) साधर्मी वात्सल्य की कमी क्यों है? ज्यादातर दिगंबर जैनी श्वेताम्बरों और स्थानकवासियों का द्वेष क्यों करतें हैं? इतना ही नहीं, दिगंबर जैन समाज की अन्य जातियों और उपसम्प्रदायों का भी द्वेष क्यों करते हैं?
● संपूर्ण समाज (जैन + अजैन) से संबधित सामाजिक और सेवाभावी कार्यों में दिगंबरों की रूचि क्यों नहीं होती है?
● वर्तमान में उत्तर भारत में श्वेताम्बर और स्थानककवासी जैन मुनियों ने लाखों अजैनियों को जैन बनाया और आज भी बना रहें है. इस प्रकार का काम दिगंबर जैन मुनि क्यों नहीं करते?
● ज्यादातर दिगंबर जैन कर्मकांड को ही धर्म क्यों मानते हैं?
यह भी पढिये:
जैन धर्म का बीसपंथ वैदिक धर्म की नकल मात्र है!
दक्षिण भारत में धार्मिक संघर्ष: क्या यह संघर्ष जैन-हिन्दू संघर्ष था?
जैन धर्म का पतन क्यों और कैसे हुआ?
जैन समाज ने जैन महापुरुषों के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया था?